ह्यूमनिस्टिक मनोविज्ञान (Humanistic Psychology) एक ऐसी विचारधारा है जो व्यक्ति की अनोखी पहचान, उसकी आंतरिक गरिमा और आत्म-विकास की प्राकृतिक क्षमता को महत्व देती है। यह दृष्टिकोण मानता है कि हर व्यक्ति में बढ़ने, समझने और स्वयं को पूर्ण रूप से व्यक्त करने की प्रवृत्ति होती है।
यह सिद्धांत 1950 और 1960 के दशक में उभरा जब व्यवहारवाद और मनोविश्लेषण जैसी तत्कालीन प्रमुख धाराओं की सीमाओं को चुनौती दी गई। ह्यूमनिस्टिक दृष्टिकोण ने उन विचारों का विरोध किया जो व्यक्ति को केवल बाहरी प्रेरणाओं या अतीत की घटनाओं के आधार पर समझने की कोशिश करते थे, और इसके बजाय व्यक्ति के वर्तमान अनुभव, मूल्यों और विकल्पों पर ध्यान केंद्रित किया।
इस दृष्टिकोण के प्रमुख सिद्धांतकारों में अब्राहम मैसलो और कार्ल रोजर्स शामिल हैं। मैसलो ने आवश्यकताओं की एक श्रेणी (हायरार्की) प्रस्तुत की, जिसमें कहा गया कि व्यक्ति को पहले अपनी बुनियादी शारीरिक और सुरक्षा से जुड़ी ज़रूरतों को पूरा करना चाहिए, तभी वह प्रेम, सम्मान और आत्म-साक्षात्कार जैसे उच्च स्तर के लक्ष्यों की ओर बढ़ सकता है।
कार्ल रोजर्स ने क्लाइंट-सेंटर थेरेपी की अवधारणा दी, जिसमें सहानुभूति, बिना शर्त स्वीकृति और सक्रिय रूप से सुनना शामिल है। उनका मानना था कि यदि व्यक्ति को एक स्वीकार्य और समर्थन देने वाला वातावरण मिले, तो वह स्वयं में परिवर्तन और आत्म-विकास की दिशा में आगे बढ़ सकता है।
आज के समय में ह्यूमनिस्टिक दृष्टिकोण विभिन्न थेरेपी विधाओं में देखा जा सकता है जैसे कि पर्सन-सेंटर थेरेपी, गेश्टाल्ट थेरेपी और अस्तित्ववादी थेरेपी। इन विधाओं का उद्देश्य व्यक्ति को अधिक आत्म-जागरूक बनाना, स्वयं को स्वीकार करना और अपने निर्णयों की ज़िम्मेदारी लेना सिखाना है।