संकट मनोवैज्ञानिक वह विशेषज्ञ है जो आपदा के ठीक बाद के घंटों में “मनोवैज्ञानिक एम्बुलेंस” की भूमिका निभाता है। भूकंप‑ग्रस्त गाँव, ट्रेन दुर्घटना, आतंकी हमला, सामूहिक हिंसा या व्यक्तिगत त्रासदी—परिदृश्य कुछ भी हो, संकट मनोवैज्ञानिक का लक्ष्य है: घबराहट को स्थिर करना, सामान्य दबाव प्रतिक्रिया को समझाना, और तात्कालिक संसाधनों से जोड़ना ताकि पीड़ित अपनी नैसर्गिक लचीलापन सक्रिय कर सके।
पहला कदम है सुरक्षा जाँच: क्या घटनास्थल अब सुरक्षित है? क्या व्यक्ति को भोजन, पानी, दवा, संपर्क‑सूचना चाहिए? इसके बाद “मनोवैज्ञानिक प्रथम सहायता” (PFA) के सिद्धांत लागू होते हैं—सक्रिय सुनना, उपस्थित रहना, सरल वाक्यों में आश्वस्त करना, और आत्म‑नियंत्रण विधियाँ सिखाना जैसे गहरी साँस, ग्राउंडिंग। संकट मनोवैज्ञानिक बताता है कि तेज़ धड़कन, झुनझुनी, यादों का फ्लैश‑बैक, या आंसू आना सामान्य प्रतिक्रियाएँ हैं। यह सामान्यीकरण पीड़ित को ‘पागल हो रहा हूँ’ के भ्रम से बचाता है।
कुछ ही मिनटों में वह त्वरित जोखिम आकलन करता है: क्या आत्मघाती विचार हैं? क्या गंभीर घाव या दवा‑निर्भरता है? यदि खतरा अधिक है तो तुरंत चिकित्सीय या मनोरोगीय हस्तक्षेप का समन्वय किया जाता है; हल्की‑मध्यम तीव्रता के मामलों में 48‑72 घंटे के भीतर फॉलो‑अप कॉल या सामुदायिक कैंप की व्यवस्था की जाती है।
कार्य‑परिस्थितियाँ अत्यधिक गतिशील होती हैं—कभी अस्थायी तम्बू, कभी पुलिस कंट्रोल रूम, तो कभी ऑनलाइन हॉटलाइन। संकट मनोवैज्ञानिक को पहली सहायता दल, फायर ब्रिगेड, एनडीआरएफ, और मीडिया के साथ समन्वित रहना पड़ता है। वह समूह‑डिब्रीफिंग (CISM), साइकोएजुकेशन सेमिनार, और बचावकर्मियों के लिए ‘स्ट्रेस‑इनोकुलेशन’ वर्कशॉप संचालित करता है। सांस्कृतिक संवेदनशीलता सर्वोपरि है—क्षतिपूर्ति अनुष्ठान, धार्मिक विश्वास और भाषाई विविधता का सम्मान हस्तक्षेप की प्रभावशीलता तय करता है।
भारत में संकट मनोवैज्ञानिक बनने हेतु क्लिनिकल या काउंसलिंग साइकोलॉजी में मास्टर डिग्री, RCI पंजीकरण, तथा एनडीआरएफ/एनसीडीसी से प्रमाणित आपदा‑मनोस्वास्थ्य प्रशिक्षण आवश्यक है। लाइव सिमुलेशन (मॉक ड्रिल), 200 पर्यवेक्षित संपर्क‑घंटे, और वार्षिक री‑सर्टिफिकेशन पाठ्यक्रम अनिवार्य हैं। बहुत‑से विशेषज्ञ राष्ट्रीय आपदा हेल्पलाइन, मनोपरामर्श केंद्र या NGO टाइप “इमोशनल सपोर्ट सेल” के साथ अनुबंधित रहते हैं।
स्व‑देखभाल एक पेशेवर दायित्व है: निरंतर द्वितीयक आघात से जूझने पर compassion fatigue विकसित हो सकती है। इसलिए ‘ड्युटी ऑफ केयर’ प्रोटोकॉल में अनिवार्य डिफ्यूजिंग, सीमित शिफ्ट, और सहकर्मी समर्थन समूह शामिल हैं। नैतिक संहिता कहती है—गोपनीयता, स्वायत्तता और सम्मान सबसे पहले; लेकिन यदि जान का खतरा हो तो तत्काल संरक्षित हस्तक्षेप भी जरूरी।
कब बुलाएँ? जब किसी घटना के तुरन्त बाद सामूहिक स्तब्धता, भय‑स्फीति या भयंकर दुख व्यक्तियों की कार्यक्षमता को पंगु करने लगे; या जब पहली पंक्ति के कर्मियों में मानसिक थकान के लक्षण उभर रहे हों। प्रारम्भिक, प्रमाण‑आधारित और संस्कृति‑सम्मत सहायता PTSD की संभावना को कम करती है और समुदाय को पुनर्निर्माण की राह पर अग्रसर करती है। यही संकट मनोवैज्ञानिक की अनूठी भूमिका है—क्षणिक अँधेरे में आशा की रोशनी रखना।